हिन्दी इज़ अवर मदर टंग!



वही पेड़ टिक पाता है, जिसकी जड़ें मजबूत होती हैं। इस उद्धरण के साथ महिमा ने अपना भाषण समाप्त किया और तालियों की गड़गड़ाहट चारों ओर गूँज़ पड़ी। इस अंतर्विद्यालय भाषण प्रतियोगिता में जहाँ बाकी बच्चों ने रटा हुआ अंग्रेजी का भाषण परोसा, वहीं एक महिमा थी, जिसकी दिल से निकली हुई आवाज़ ने, वहाँ हर उपस्थित की जड़ों को हिला डाला। आखिर क्या वजह थी, कि महिमा ने अध्यापिका के मना करने के बावजूद, हिंदी में भाषण देना ठीक समझा। वैसे तो, वजह तब तक ही मुद्दे की बात रहती है, जब तक परिणाम अनुकूल न हो। अध्यापिका की मुस्कान ने इस बात को चरितार्थ कर दिया जब महिमा को इनाम दिया गया।


   हर वर्ष होने वाली इस प्रतियोगिता में महिमा भाग लेती, छठवीं कक्षा से अब दसवीं कक्षा थी। हर वर्ष भाग लेने के बाद भी, महिमा को कोई पुरस्कार नहीं मिलता। प्रतियोगिता में भाषा गत कोई बाधा न थी। मगर हमारे आज़ाद देश की ज़ंग लगी मान्यताएँ आड़े आ जाती। महिमा के अध्यापिका जैसे लोग इन मान्यताओं को मानसिकता में बदलने में कोई कसर न छोड़ते। उनका कहना था, ऑनली इंग्लिश स्पीचज विल वी फॉवर्डिड फॉर कोम्पिटीशन, हमारे स्कूल की रेप्योटेशन का सवाल है।


    अब प्रतियोगिता में भाग तो लेना ही था, तो मजबूरन महिमा को अंग्रेजी भाषण तैयार करना पड़ता। विचार अच्छे होने के बाद भी वह भाषा में मात खा जाती। वह अंग्रेजी लिख तो लेती थी, मगर निरंतर बोल नहीं पाती थी। बाबा मामूली सरकारी कर्मचारी थे, माता गृहिणी। माता-पिता पढ़े लिखे तो थे, लेकिन अंग्रेजी नहीं जानते थे। घर में पूरी तरह क्षेत्रीय भाषा बोली जाती। कहते हैं भाषा बोलने से स्वभाव में आती है, अब अंग्रेजी ने भारत की आधी आबादी का स्वभाव तो छू लिया मगर जड़ न छू पाई। इसका परिणाम यह हुआ कि आज की पीढ़ी न ही पूरी अंग्रेजी जानती है, न ही हिन्दी। तो हिंगलिश का आविष्कार होना लाज़मी था, जो ऐसा दर्शाता है जैसे हिन्दी ने अपना अस्तित्व बचाने जैसे-तैसे अंग्रेजी से समझौता कर लिया हो। अंग्रेजी ने हिन्दी की फसल कुतर-कुतर मात्र डंठल छोड़े हैं। और कुछ किसान उस फसल को फिर से हरा-भरा करने के प्रयासों में लगे रहते हैं। उन में से एक थी महिमा। जितना उसे देश से प्रेम था, उतना ही पावन हिन्दी से। जब विचारों और इस भाषा का मिलन होता, तो अच्छे-अच्छे भावुक हो महिमा के वक्तव्य के कायल हो जाते।


     यह बात महिमा जानती थी और अपनी इसी ताकत पर भरोसा रख, उसने सोचा क्यों न इस बार सीधा प्रदर्शन किया जाए। प्रतियोगिता में आगे बढ़ने जरूरी था, कि भाषण अंग्रेजी में हो, महिमा ने वैसा ही किया और एक अंग्रेजी भाषण तैयार कर अध्यापिका को दिखा दिया। विचार तो अच्छे थे ही, तो हमेशा की तरह महिमा का चयन होने में देर न लगी। मगर ये तो सिर्फ विज्ञापन था, असली चित्रपट अभी बाकी था।


  प्रतियोगिता का दिन आया। आज मौसम के मिज़ाज भी महिमा की तरह बदले हुए थे। मानो हवा की दिशा जीत का बिगुल बजाते हुए, महिमा के बालों का परचम लहरा रही हो। बाल और बल संभालते हुए महिमा अपने स्थान से प्रतियोगिता का आखिरी भाषण देने मंच की ओर बढ़ी तो अध्यापिका ने इशारे में ऑल दी बेस्ट कहा। जब रास्ते मन को नहीं भाते तब मंजिलें बदल ही जाती हैं। ऐसा ही कुछ महिमा के साथ हुआ। अव्वल आने की चाह उसने तभी छोड़ दी थी, जब उसे समाज को संबोधित करने की जरूरत महसूस हुई।


      दोनों हाथों को जोड़कर अभिवादन करते हुए, महिमा ने शुरू किया- आदरणीय! उपस्थित जन, मैं महिमा, सर्वप्रथम क्षमा चाहती हूँ, अपने विद्यालय से यदि मेरी भाषा से उनकी रेप्योटेशन पर कोई असर पड़े। मैं ज़रा अंग्रेजी बोलने में कमजोर हूँ, और मेरी तरह कई और विद्यार्थी भी। लेकिन मैं भरोसा दिलाती हूँ, कि हमारे बाद वाली पीढ़ी इस बात में निराश नहीं करेंगे। आज चार साल का बच्चा फर्राटे से अंग्रेजी बोलता है और वहीं हिन्दी का कोई शब्द गलत बोल दे तो पता नहीं क्यों हम बड़े गर्व के साथ कहते हैं, कि हाँ हिन्दी में कमजोर है, मगर अंग्रेजी में अच्छा है। शायद यही सुनने, हिन्दी को हमारी मातृ-भाषा बनाया गया था। माना कि आज़ादी के बाद अव्यवस्थाओं के चलते, अंग्रेजी ने अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया। पर तब मात्र एक प्रतिशत लोग अंग्रेजी बोलते थे, और आज की स्थिति में चार प्रतिशत लोग। अब आप अंदाजा लगा सकते हैं, कि आने वाले समय में हिन्दी मात्र गृह-शोभा में छपेगी और वह भी क्या पता अंग्रेजी में प्रकाशित होने लगे। तब तो बस किसी अंग्रेजी की किताब में आई लव माई इंडिया नाम के पाठ में हिन्दी इज़ अवर मदर टंग लिखा रह जाएगा। भारत की परिभाषा कहती है, कि हिन्दी मातृ-भाषा है, झंडा तिरंगा, जन-गण-मन राष्ट्रगान, और वन्दे-मातरम् राष्ट्रगीत। अब आप ही बताइए, यदि हम बोलें कि हमारा झंडा तिरंगा है, और फैराएँ पंचरंगा, तो क्या ये ठीक होगा। और हम झंडे के साथ ऐसा करते भी नहीं हैं, फिर राष्ट्रीय भाषा के साथ ऐसा क्यों? क्या भाषा हिन्दुस्तान की जड़ों में से एक नहीं है। मैं जानती हूँ, आप में से कई लोग कहेंगे, चार प्रतिशत कुछ ज्यादा नहीं देश की आबादी के मुकाबले। लेकिन आप हिन्दी बोलने में ऐसे ही शर्म खाते रहे, और अपने बच्चों को गलत हिन्दी बोलने पर, हँसी में टालते रहे, तो ये चार प्रतिशत से, अस्सी और चार प्रतिशत होने में वक्त नहीं लगेगा।
क्या आप फिर से
हिन्दुस्तान को इंग्लिश कॉलोनी बना हुआ देखना चाहते हैं। रहन-सहन तो वही है हमारा, भाषा भी उन्ही की बोलते हैं, टूटी-फूटी ही सही। फिर बचा क्या? हम क्यों अलग होंगे
अंग्रेजों से, अपने गेहुँआ रंग के लिए, या पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी के लिए। जब अपनी मातृ-भाषा के साथ न्याय नहीं कर पाए, तो आपको उसका सम्मान छीनने का भी कोई हक नहीं है। आप कहते हैं हिंदी आपकी रेप्योटेशन कम करती है, बल्कि आप हिंदी की रेप्योटेशन कम करते हैं। माना कि सूचना प्रसारण जैसे विभाग अंग्रेजी पर निर्भर हैं, तो मैं अंग्रेजी बोलने वालो के खिलाफ भी नहीं। पर क्या हम हिंदी को पाठ्य-पुस्तक में एक अतिरिक्त विषय से ऊपर दर्ज़ा नहीं दे सकते। इतना समझ लीजिये ये जड़ कटी तो, भारत की परिभाषा बिखरने में समय नहीं लगेगा, क्योंकि वही पेड़ टिक पाता है, जिसकी जड़ें मज़बूत होती हैं।   

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