अज्ञात का डर

मानव एक विचित्र प्राणी है। मानव अपने मस्तिष्क के लिए जाने जाते हैं। कहते हैं कि मानव सबसे बुद्धिमान जानवर होता है। पर वास्तव में मानव-मस्तिष्क एक खुला साँड़ है, जिसे काबू करना अति आवश्यक होता है। क्योंकि वह जितना उपद्द्रव कराये उतना कम है। अलग-अलग स्थितियों को भाँप कर, मस्तिष्क कुछ संकेत देता है। अच्छे संकेत हर्ष का विषय होते हैं तो बुरे संकेत डर का।

अब डर भी मस्तिष्क का ही खेल है। आपने सुना होगा की किसी को ऊचाइयों का डर तो किसी को गहराइयों का डर होता है। किसी को आग का तो किसी को पानी का। सब मस्तिष्क का खेल है। यह मनुष्य के हाथ में होता है की कैसे अपने मस्तिष्क को काबू करना है क्योंकि कोई भी स्थिति हो वह शांत नहीं बैठता। वैसे मानव  शरीर में सब कुछ मस्तिष्क का ही काम होता है  तो ये कहना ठीक होगा कि अच्छे विचारों पर बुरे विचारों को हावी होने से रोकना ही मस्तिष्क को काबू करना कहते हैं। तो डर भी एक मानसिक स्थिति है, जो मन विचलित होने पर पैदा होती है। यह आम बात है लेकिन जब यह हावी होने लग जाये तो मनुष्य की दुनिया ही उलट-पुलट हो जाती है। और इसका इलाज भी संभव है जब डर की वजह समक्ष हो लेकिन जब वही अज्ञात हो तो इलाज कैसा। 


कभी-कभी मस्तिष्क भविष्य में होने वाली घटनाओं भाँप लेता है या फिर खुद ही ऐसी स्थितियों का निर्माण करता है जिनसे डर पैदा होता है। और मनुष्य बिना समझे परेशान होता रहता है। इसे ही कहते हैं अज्ञात का डर। क्योंकि हम सभी भविष्य से अन्जान हैं, हर आने वाले पल से अन्जान हैं, हर आने वाला क्षण अज्ञात है।  तो छोटी-छोटी चीज़े जैसे, यह नहीं हुआ तो क्या होगा? वो नहीं हुआ तो क्या होगा? हम सभी को अक्सर परेशान करती हैं। और यह सभी को होता है। स्पष्ट कहें तो वह चीज़ें जो हमें अपने "कम्फर्ट जोन" से निकलने पर मजबूर करती हो वह ही भय पैदा करती हैं। पर वास्तव में इसका कोई आधार नहीं होता न ही कोई वजूद, यह वेबुनियाद मुद्दों पर आधारित होता है क्योंकि हमें कभी न कभी अपनी आराम की सीमायों को पार करना ही पड़ता है। शायद इसे ही जीवन में आगे बढ़ना कहते हैं और आगे बढ़ने में डर कैसा? वैसे यह बात सही है यह डर चिंताओं के रूप में सब को सताता है लेकिन कुछ लोग इस पर ध्यान नहीं देते। हम कोई नया काम करने का सोचते हैं, तो मन में एक हलचल पैदा होती है, की यदि यह सफल नहीं हुआ तो? मेरी जगहँसाई हुई तो? मेरा कोई नुकसान हुआ तो? और ऐसे सवाल पैदा करती है। 


अब कुछ लोग इन पर ध्यान न देने में ही समझदारी समझते हैं लेकिन कुछ लोग इन पर विचार करते करते बहुत दूर पहुँच जाते हैं और फिर उन्हें वहाँ से वापिस आने में भी डर लगता है, वहाँ रहने में भी डर लगता है जो अवसाद की स्थिति पैदा करता है। तो जब यह ख्याल मन के दरवाज़े पर दस्तक दे तो दरवाज़ा खोलते ही बंद कर देना चाहिए क्योंकि ये उस मेहमान की तरह हैं जो आपका समय बर्बाद करने आते हैं।

 इनसे बचने का यही तरीका है कि बहाने बना के पीछा छुड़ा लो और वैसे ही अपने मन को फुसला लो कि "भैया आल इज़ वैल"। अब वर्तमान की चिंताएँ कम हैं क्या जो वेबजूद चीज़ों पर वक़्त ज़ाया किया जाये। ऐसे तो आप न इधर के रहेंगे न उधर के। वो कहते हैं न कि धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का। और माफ़ कीजिये आप धोबी के कुत्ते तो हैं नहीं, इसलिए एक ही जगह रहकर अज्ञात के ज्ञात होने का इंतज़ार करने में ही बेहतरी है।  

Comments

Popular Posts